भारत के राजा-महाराजा कई मायनों में अनूठे थे. गंगा तट पर स्थित पावन नगरी बनारस के महाराजा बहुत आध्यात्मिक-धार्मिक प्रवृत्ति के थे. वह एक अनूठी परंपरा का पालन किया करते थे. परंपरा यह थी कि हर दिन सुबह जब महाराजा की आंख खुलती तो उनके सामने एक गाय जरूर होती. ताकि वह सबसे पहले गाय का दर्शन कर सकें. महाराजा, गाय को ब्रह्मांड की अनश्वरता का प्रतीक मानते थे. इसलिये बिना नागा, सबसे पहले गाय के दर्शन करते थे.

चर्चित इतिहासकार डोमिनिक लापियर और लैरी कॉलिन्स (Dominique Lapierre and Larry Collins) अपनी किताब ”फ्रीडम एट मिडनाइट” में लिखते हैं कि प्रतिदिन सुबह एक गाय महाराजा के शयन कक्ष की खिड़की के पास ले जाई जाती थी और उसकी पसलियों में लकड़ी कोंचकर उसे रंभाने पर मजबूर किया जाता था. ताकि उसकी आवाज सुनकर महाराजा की नींद टूटे.

जब बुरे फंसे नवाब रामपुरएक बार महाराजा बनारस को रामपुर के नवाब ने अपने यहां आमंत्रित किया. नवाब को महाराजा की इस आदत के बारे में पता नहीं था. उन्होंने महाराजा साहब के ठहरने का प्रबंध अपने आलीशान महल की दूसरी मंजिल पर करवाया, लेकिन जब उन्हें महाराजा की दिनचर्या का पता चला तो परेशान हो उठे. इस प्रातःकालीन दिनचर्या का पालन करना कठिन समस्या बन गई. आखिरकार नवाब साहब ने अपने मेहमान की परंपरा को बनाये रखने के लिए एक विचित्र युक्ति निकाली.

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क्रेन से दूसरी मंजिल पर भेजी जाती थी गाय लापियर और कॉलिन्स लिखते हैं कि नवाब रामपुर ने एक क्रेन मंगवाई, जिसकी मदद से प्रतिदिन सुबह एक गाय रस्सियों के सहारे महाराजा बनारस के शयनकक्ष की खिड़की तक पहुंचायी जाती थी. गाय को इस विचित्र यात्रा की आदत तो होती नहीं थी, इसलिए वह बार-बार तड़पकर इतने जोर से रंभाती थी कि महाराजा साहब ही नहीं, बल्कि महल के दूसरे लोग भी जाग जाते थे.

9 दिन नहीं नहाते थे मैसूर के महाराजाडोमिनिक लापियर और लैरी कॉलिन्स लिखते हैं कि कुछ राजे-महाराजे मानने लगे थे कि उनकी उत्पत्ति किसी देवी स्रोत से हुई है. मैसूर के महाराजा भी उन्हीं में से एक थे. वह अपने को चंद्रमा का वंशज बताते थे. वर्ष में एक बार शरद पूर्णिमा के दिन महाराजा अपनी प्रजा के लिए समाधि लगाते थे. नौ दिन तक हिमालय की किसी गुफा में समाधि लिये हुए साधु की तरह अपने महल के एक अंधेरे कमरे में सबकी आंखों से अदृश्य हो जाते थे. न दाढ़ी बनाते थे, न नहाते थे.

उन नौ दिनों तक, जब उनके बारे में यह माना जाता था कि उनके शरीर में ईश्वर का वास है, न उन्हें कोई छू सकता था, न देख सकता था. नौ दिन बाद वह बाहर निकलते थे.

काले घोड़े पर बैठ प्रजा से मिलतेजब महाराजा अपनी समाधि से बाहर आते तो सुनहरी झूल डालकर एक हाथी सजाया जाता. उसके माथे पर पन्नों से जड़ा हुआ एक पत्थर लगाया जाता था. फिर उस हाथी पर बैठकर महाराजा साहब मैसूर के घुड़-दौड़ के मैदान में जाते थे. उनके साथ घोडों और ऊंटों पर सवार, भाले लिए हुए बहुत-से सिपाही चलते थे. वहां उनकी प्रजा उनके दर्शन के लिए खचाखच भरी रहती थी. पुजारी मंत्रों का उच्चारण करके उनके बाल कटवाते थे, उन्हें नहलाते थे और भोजन कराते थे. सूरज डूबने पर जब घुड़-दौड़ के मैदान पर अंधेरा छाने लगता था, तो महाराजा के लिए एक काला घोड़ा लाया जाता था. जैसे ही वह घोड़े पर सवार होते थे, मैदान के चारों ओर हज़ारों मशालें जल उठती थीं.

रामपुर के आखिरी नवाब

उनकी झिलमिलाती हुई गुलाबी रोशनी में काले घोड़े की पीठ पर सवार महाराजा साहब पूरे मैदान का सरपट चक्कर लगाते थे. प्रजा तालियां बजाकर उनका अभिवादन करती थी और इस बात के लिए आभार प्रकट करती थी कि चंद्रवंशी महाराजा अपनी प्रजा के बीच लौट आये. कुछ लोग इस बात लिए भी आभार प्रकट करते थे कि महाराजा ने उन्हें यह नयनाभिराम दृश्य देखने का अवसर दिया.

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महाराजा उदयपुर की कहानीउदयपुर के महाराजा इससे भी उच्च दैवी शक्ति, सूर्य को अपना आदि पूर्वज मानते थे. उनका राजवंश भारत में सबसे पुराना था और कम-से-कम हज़ार साल से लगातार शासन करता आया था.
.Tags: Cow, Rampur news, Varanasi newsFIRST PUBLISHED : February 17, 2024, 09:23 IST



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