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Parkisnson Disease Detection: पार्किंसन डिजीज के बारे में आमतौर पर लक्षण बहुत देर में नजर आते हैं. इसका असर यह होता है कि इलाज में देरी होती है लेकिन अब इसकी पहचान आंखों के जरिए भी हो सकती है. इसका अर्थ यह है कि आंखें भी पार्किंसन की तरफ इशारा करती हैं. आंखों की थ्री डाइमेंशनल स्कैनिंग के बाद इसकी पहचान संभव है. दरअल रेटिना के पीछे की नर्व सेल का अध्ययन कर पार्किंसन के लक्षणों की पहचान की जाती है.
आंखों के जरिए पहचानआंखों के जरिए  भी स्वस्थ शरीर और दिमाग के बारे में जानकारी मिल सकती है. पिछले कई दशकों से शोधकर्ता इस बात की कोशिश कर रहे हैं कि किस तरह से आंखों से मिले संकेत के जरिए अल्जाइमर, मल्टीपल सिलेरोसिस या सिजोफ्रेनिया की पहचान की जाए. पार्किंसन रोग, नर्वस सिस्टम से जुड़ी हुआई परेशानी है जिसके पीछे की वजह अभी तक अस्पष्ट रही है. यूके के मूरफील्ड आई हॉस्पिटल के डॉक्टर सिग्फॉयड वेगनर का कहना है कि आंखों को स्कैन करने के बाद जो जानकारी मिली उससे उन्हें बहुत खुशी हुई. हालांकि अभी हम यह बता पाने की स्थिति में नहीं हैं किसी शख्स में पार्किंसन होने की संभावना कितनी है लेकिन इसके जरिए कुछ हद तक निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं.
बुजुर्ग अधिक होते हैं प्रभावित
शोध में यह पता चला कि वो मरीज जिनकी मौत पार्किंसन की वजह से हुई थी उनकी आंखें असामान्य नजर आईं लेकिन यह बता पाना संभव नहीं हुआ कि क्या इस तरह की दिक्कत उस मरीज में पहले से थी. अब एक बात तो साफ है कि आंखों के जरिए हम शरीर में पनपने वाली परेशानियों के बारे में पता लगा सकते हैं. आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की मदद से करीब डेढ़ लाख मरीजों के बारे में अध्ययन किया गया जिनकी उम्र 40 साल से अधिक थी. करीब 700 लोगों की आंखों में स्पष्ट तौर पर बदलाव नजर आ रहे थे. इसकी मदद से शोधकर्ताओं ने करीब 67 हजार लोगों पर अध्ययन किया गया और मिला कि 53 लोग पार्किंसन से पीड़ित थे. वो लोग इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि इनर गैंगोलियन लेयर में पतलेपन की वजह पार्किंसन था.औसतन 60 से 80 फीसद लोग जो पार्किंसन का सामना कर रहे हैं उनके डोपामाइन सीक्रेशन में कमी देखी गई. अगर बहुत पहले ही हम पुख्ता तौर पर पार्किंसन को पहचान पाने में कामयाब हुए तो प्रभावी तौर पर इलाज किया जा सकता है. पार्किंसन में आमतौर पर शरीर में कंपकंपी, चलने फिरने में परेशानी, शरीर के लचीलेपन में कमी और प्रभावित शख्स खुद को बैलेंस नहीं कर पाता है.

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