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हाइलाइट्सकिशोर पाठक को रुमानी नायक दिख सकता हैपरिपक्व विवेक नायक को पलायनवादी मान सकता हैपलायन को तार्किक साबित करने वाले अभिजात्य की कहानी भी हैमहज पांच चिट्ठियां और पूरे जीवन का उपन्यास. ये खासियत प्रोफेसर हरिमोहन झा की ही है. मैथिली साहित्य और दर्शन शास्त्र में भी उनका उल्लेखनीय योगदान है. लेकिन ‘पाँच पत्र’ नाम से लिखी गई रचना मानव चरित्र, या कहें पुरुष चरित्र, का अद्भुत वर्णन है. वो जीवन जिसमें वो सपने बुनता है, कुछ हासिल करता है और आगे बहुत कुछ न मिलने की स्थिति में पलायन करने के तरह तरह के बहाने गढ़ता है. लिप्सा और उसे प्राप्त करने की उसकी कामना होती है. पा भी लेता है, फिर उसका उपयोग कर जिम्मेदारी से कतराता है. आखिरकार नियति की शरण में पलायन कर जाता है. हथियार डाल देता है. अभिजात्य वर्ग का है, पढ़ा लिखा है, लिहाजा इस पलायन के पक्ष में कुछ संस्कृत के श्लोक प्रमाण के तौर पर भी पेश कर देता है. विवशताएं, सीमाएं भी हो सकती है. लेकिन इस वर्ग के अभिजात्य में संघर्ष की मंशा ना के बराबर होती है.

हरिमोहन झा के इन पत्रों को अलग अलग वय में पढ़ने पर उनके अलग अलग अर्थ और आनंद मिलते हैं. यही पत्र जब किशोर – युवा संधि के वय में पढ़े जाते हैं तो कोई पढ़ाकू रुमानी नायक दिखता है. इस वर्ग के पाठक को ये भी लग सकता है कि आयु बढ़ने के साथ किस तरह से पत्र का नायक विवश दिखता है. पौढ़ता की आयु में यही पत्र नायक के पलायन को दिखाते हैं. समझ में आता है कि वो नौजवान जो अपनी प्रिया को राधा बना कर कृष्ण की तरह रास रचाना चाहता है, वही आखिर में उसकी मौत पर आने से भी कतरा रहा है. यथास्थितिवादी सामाजिक हालत का इन पत्रों से बेहतरीन नमूना मिलना मुश्किल है. जगदीश चंद्र ठाकुर ने मैथिली से इसका हिंदी में बहुत अच्छा अनुवाद किया है.

लिखा कम, संप्रेषण ज्यादा हैहरिमोहन झा की इस रचना के पहले पत्र की बात की जाय तो ग्रैजुएट हो चुके एक नौजवान का प्रेम पत्र है. वो भी अपनी होने वाली पत्नी के लिए. हालांकि इसका काल खंड हरिमोहन झा ने इसका काल खंड 1919 लिखा है. इस पत्र में नायक देवकृष्ण अपना नाम सिर्फ कृष्ण लिखता है. इसमें नायक अपनी होने वाली पत्नी की झलक देखने, उससे पत्राचार करने और उसके लिए चंद्रहार भेंट देने की बात करता है. इसके ठीक दस साल बाद दूसरे पत्र में नायक उसी पत्नी से दो बेटियां और एक बेटा पैदा कर चुका है. इसमें किसी जिम्मेदार गृहस्थ की तरह बातें करता है. पत्नी से स्वास्थ्य के लिए उपाय करने और बूढ़ी माता की देखरेख करने फिर उसे अपने यहां, जहां वो नौकरी करता है, बुला पाने में असमर्थता का जिक्र करता है.

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फिर दस वर्ष बाद 1939 में जब जिम्मेदारियां बहुत बढ़ गई तो तीसरे पत्र में दिखता है कि नायक कैसे उन्हें निभाने में लगातार फेल हो रहा है. कैसे वो खुद गांव आने की जगह पत्नी को सुझाव दे रहा है, इसका जिक्र आता है. इसके भी दस साल बाद नायक देव कृष्ण को पत्नी के पत्र से पता चलता है “सुपुत्र” बंगटबाबू अपनी पत्नी यानी देव कृष्ण की बहू समेत कलकत्ता चले गए हैं. तो उसी साल चौथा पत्र 1949 में लिखते हैं. पहले पत्र में होने वाली पत्नी को प्रियतमे और दूसरे में प्रिये से पत्नी को संबोधित करने वाले देव कृष्ण तीसरे और चौथे पत्र में उसे कोई संबोधन दिए बगैर “शुभाषीश” लिख देते हैं. सांत्वना देते हैं. “जाने दो बेटे बहू चले गए तो क्या हुआ.” बेटे – बहू को कोसते भी हैं.

पांचवा और आखिरी पत्र बेहद मार्मिक है. इसमें देव कृष्ण का विवशता और पलायन हद तक दिखता है. 1959 का ये पत्र वे पत्नी की जगह बेटे बंगट को लिखते हैं. शुरुआत करते हैं – “स्वतिश्री बंगटबाबू को मेरा शुभाशीष.” इस पत्र में वे बहुत सारी बातों के साथ ये भी लिखते हैं – “….अस्तु कुमाता जायेत क्वचिदपि कुपुत्रो न भवति”. यहां बहू-बेटे की तारीफ करते हुए वे अपनी उसी “प्रियतमा” की निंदा करते हैं, जिसे उन्होंने पत्नी बनाया था. फिर ये भी लिखते हैं कि जिस दिन बूढ़ी को “कुछ हो जाए” तो तुम्ही लोगों के हाथों उसकी सद्गति होगी ही. लिखते है – “जिस दिन ये सौभाग्य हो एक लकड़ी मेरी तरफ से भी चिता में रख देना.” हरिमोहन झा ने ये लिखा तो नहीं है लेकिन बिना लिखे ही पत्रों के पढ़ने से साफ हो जाता है कि “चंद्रहार” देकर “प्रियतमा” को पटाने वाला काशी में प्राण देकर मोक्ष का लोभ नहीं छोड़ पा रहा है.
.Tags: Literature, Literature and ArtFIRST PUBLISHED : June 12, 2023, 13:23 IST

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