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लखनऊ. जर्मन अर्थशास्त्री ईएफ शुमाकर ने कुछ दशक पहले एक बात कही थी, ‘छोटा है तो बेहतर है.’ ‘बड़े के बेहतर होने की धारणा’ चुनौतीभरी होती है. वैसे तो शुमाकर ने ये बात अर्थव्यवस्था के संदर्भ में कही थी और इसे तकनीक के लिए इस्तेमाल किया जाता रहा है. लेकिन इन दिनों ये कहावत उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भी चरितार्थ होती नज़र आ रही है.उत्तरप्रदेश में हरेक बड़ा दल इन दिनों छोटे दलों के साथ गठबंधन बनाने को लेकर आतुर लग रहा है, लेकिन क्यों ? इस बात का जवाब तलाशने के लिए हमें भारत में पिछड़ी जातियों के अब तक के सफर पर नज़र डालनी होगी. मंडल कमीशन की रिपोर्ट वो अध्याय है जिससे इस बात के तार जुड़ते हैं. इसके कार्यान्वयन भारत की राजनीति में एक अहम क्षण है. इसने सामाजिक न्याय की राजनीति को पनपने का मौका दिया और कई पिछड़े समुदायों को मुख्यधारा की राजनीति में आने का आत्मबल प्रदान किया. लोकतंत्र में अगर कुछ मायने रखता है तो वो है संख्या, यही वजह है कि संख्या के हिसाब से सशक्त जातियां और समुदायों ने भारत में पिछले तीन दशकों से सामाजिक न्याय की राजनीति पर दबदबा कायम रखा है. पिछड़ी समुदायों के बीच में यादव,कुर्मी ऐसी ही प्रभावशाली जातियां हैं, जो लोकतांत्रिक राजनीति में ताकतवर राजनीति के बडे हिस्से का दावा करती है.कुछ वक्त के बाद कुछ अन्य पिछड़ी और अति पिछड़ी जातियां जिनके ठीक ठाक आबादी थी, उन्होंनें राजनीति में अपनी जगह बनाना शुरू किया, जहां तक दबदबे की बात है तो वो अभी भी यादव या कुर्मी जितना दम नहीं रखती हैं. लेकिन उनका दावा राजनीति के साथ साथ सामाजिक और आर्थिक विकास में वंचित और हाशिये पर रखे जाने से निकलता है. इनमें से निषाद, कोरी, राजभर जैसी जातियां शामिल हैं.समय के साथ साथ इन समुदायों के नेताओं ने अपने लोगों को अपनी तरफ करने में कामयाबी हासिल की, जिसका इस्तेमाल वह बड़े दल में अपनी जगह बनाने के लिए करते हैं. उत्तरप्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में जातिगत दलों के उभरने की वजह इससे साफ हो जाती है.यह राजनीतिक दल, बड़े दलों को वादा करते हैं कि उनकी जात-बिरादरी का उन्हें पूरा समर्थन मिलेगा. भारतीय जनता पार्टी (भाजपा), समाजवादी पार्टी (सपा) हो या फिर कांग्रेस. ये सभी इनके साथ गठबंधन स्थापित कर रहे हैं खासकर चुनाव के दौरान इसमें गति आई है. हालांकि दिलचस्प बात ये है कि मायवती के नेतृत्व वाली बहुजन समाज पार्टी (बसपा) आमतौर पर उत्तरप्रदेश में छोटी जातिगत दलों के साथ गठबंधन बनाने को सिरे से नकारती है.यह छोटे दल अपने समर्थन के एवज में सरकार में कोई मंत्रीपद या रणनीतक सीट की दरकार रखती हैं. इसके साथ ही विकास परियोजनाओं में इनकी जाति और समुदाय के लोगों को लोकतांत्रिक लाभ की मांग भी रखी जाती है. इस तरह इन छोटे जातिगत दलों के समर्थकों के वोट स्टेपनी वोट का काम करते हैं, क्योंकि खुद कि दम पर इनके उम्मीदवार की जीत सुनिश्चित नहीं हो सकती है लेकिन बड़े दल के साथ मिलने पर ये कुछ सीट निकाल लेते हैं. और आगे चलकर जब मामला फंसता है तो इन छोटे दलों को समर्थक और नेता खुद को किंगमेकर कहते हैं.निषाद पार्टी का नेतृत्व करने वाले संजय निषाद अपने समुदाय के समर्थन का दावा करते हैं. वहीं महान दल के नेता केशव देव मौर्य, का दावा है कि मौर्य, शाक्य, सैनी और कंबोज इनके साथ हैं. इसी तरह सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के नेता ओम प्रकाश राजभर का दावा है की पूरी राजभर जाति उनके साथ है.2022 में होने वाले चुनावों में अखिलेश यादव के नेतृत्व वाली समाजवादी पार्टी जिसे मुस्लिम-यादव के दल के तौर पर जाना जाता है, छोटे दलों के साथ हाथ मिलाने को लेकर काफी उत्सुक है. हाल ही में सपा ने महान दल और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के साथ हाथ मिलाने की घोषणा की है.एसबीएसएम के वोटर मुख्यतौर पर राजभर हैं जो उत्तरप्रदेश की आबादी के 2 फीसद से ज्यादा नहीं है. वे मुख्यतौर पर मध्य उत्तरप्रदेश और उत्तरी उत्तरप्रदेश के कुछ जिलों में सिमटे हुए हैं. इन जिलों में सपा को बढ़ती की उम्मीद है.इसी तरह मौर्य, कुश्वाहा, शाक्य,सैनी उत्तरप्रदेश के कम से कम 10 जिलों में पकड़ रखते हैं. समाजवादी पार्टी की रणनीति है इन जातियों का समर्थन हासिल करने की है, साथ ही उसे उम्मीद है कि उसका पारंपरिक मुस्लिम-यादव वोट बैक बरकरार रहेगा. इससे साफ जाहिर हो जाता है कि उत्तरप्रदेश में क्यो छोटा इन दिनों बेहतर है. और हर बड़े दल की उस पर नजर है.लेखकः बद्री नारायण(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News18Hindi किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)

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