UP Assembly Elections political history of Kanpur assembly seats upat

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UP Assembly Elections political history of Kanpur assembly seats upat



कानपुर. मैं कानपुर (Kanpur) हूं. मैं प्राचीन काल से विद्यमान हूं. मेरे कई नाम बदले. धर्म, राजनीति और उद्योग का केन्द्र रहा. इतिहास की धूप-छांव से गुजरकर मैं कानपुर, एक नये मुकाम पर खड़ा हूं. मेरी आंखों के सामने 2022 का चुनावी परिदृश्य दृश्यमान है. मैंने रामायण काल की राजनीति देखी है. कालचक्र का पहिया घूमते-घूमते कहां से कहां आ गया है. राजनीति में आमूलचूल परिवर्तन है. 2022 के सत्ता संघर्ष को जिस रूप में देख रहा हूं, जो समझ रहा हूं, वही बता रहा हूं. लेकिन सबसे पहले स्वर्णिम इतिहास.
मैं कानपुर हूं. अनेक दंतकथाएं मुझसे जुड़ी हैं. रामायण काल का साक्षी हूं. मेरे पास ही आबाद है बिठुर. मान्यता है कि महर्षि वाल्मीकि का आश्रम यहीं था. उन्होंने यहीं रामायण की रचना की थी. माना जाता है कि महर्षि बाल्मीकि ने अपने आश्रम में माता सीता को आश्रय दिया. इसी आश्रम में लव-कुश का जन्म हुआ था. यह आश्रम आज भी है जो महर्षि वाल्मीकि की याद दिलाता है. गंगा की धारा के साथ समय का भी प्रवाह होता रहा. इतिहास के कई काल खंड गुजरे. ईस्ट इंडिया कंपनी ने मुझे 1803 में जिला बनाया. मैं 1857 में आजादी की पहली लड़ाई का गवाह रहा. अंग्रेजों ने कानपुर की अंग्रेजी वर्तनी 18 बार बदली. 1948 में मेरे नाम की वर्तनी KANPUR हुई. आजादी की लड़ाई के कई शूर-वीर मेरे आंगन में पले-बढ़े। रानी लक्षमी बाई, तात्या टोपे, नान साहेब को बिठुर की मिट्टी ने साहसी बनाया. चंद्रशेखर आजाद और भगत सिंह की पहली मुलाकात यहीं हुई.
पूरब का मैनचेस्टरकभी मैं पूरब का मैनचेस्टर कहा जाता था. यहां 16 सूती और 2 ऊनी मिल थी. 1861 में यहां पहली सूती मिल खुली थी जिसका नाम था एलगिन मिल. फिर तो यह कल-कारखानों का शहर बन गया. 1876 में लाल इमली मिल खुली थी जिसके ऊनी कपड़ों की इंग्लैंड, रूस, अमेरिका और जर्मनी तक मांग थी. लाल इमली के ऊनी चादर हाड़ कंपाती ठंड में भी पसीना छुड़ा देते थे. कल कारखानों की वजह से यहां मजदूरों की बड़ी बस्ती आबाद थी. इसका असर हुआ. यहीं 1925 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का गठन हुआ. मैं कानपुर शहर 1977 में एक बर्बर गोलीकांड का गवाह बना. इस घटना ने उत्तर प्रदेश की राजनीतिक दिशा बदल दी. 2020 में बिकरू गांव में 8 पुलिसवालों की हत्या कर एक बार फिर मेरी मिट्टी को खून से लाल कर दिया गया था.
पुलिस गोलीकांड की पृष्ठभूमिमैं कानपुर, दिल में एक जख्म लिये जी रहा हूं. मुझे याद है कि 6 दिसम्बर 1977 को कैसे मेरा सीना गोलियों से छलनी किया गया था. कैसे मेरी आंखों के सामने मेरे 11 मजदूर बेटों को गोलियों से भून दिया गया था. आज की नौजवान पीढ़ी हो सकता है कि इस घटना को भूल गयी हो लेकिन मेरे मन में आज भी इसकी कसक बरकरार है. मेरी धरती पर आबाद कई मिलों में एक थी स्वदेशी कॉटन मिल. 1977 के आसपास इस मिल में करीब 22 हजार लोग काम करते थे. लेकिन मिल की माली हालत खराब हो चली थी. नौ महीने से वेतन बकाया था. मजदूर यूनियन वेतन भुगतान के लिए दबाव बनाये हुए थी. तनाव की स्थिति बन गयी थी. 6 दिसम्बर 1977 को अनहोनी हो गयी. मिल के अंदर मजदूर नेता और मिल प्रबंधन के अफसरों के साथ बकाया वेतन देने के मुद्दे पर बातचीत चल रही थी. मिल के बाहर हजारों मजदूर अपनी मांगों के समर्थन में नारा लगा रहे थे. वार्ता किसी नतीजे पर पहुंचती कि इसके पहले एक बड़ी घटना हो गयी.
1977 के गोलीकांड में मारे गये थे 11 मजदूरलेकिन पुलिस ने अचानक कुछ मजदूर नेताओं की पिटाई कर दी. मिल के अंदर वार्ता कर रहे मजदूर नेताओं को जब ये बात मालूम हुई तो वे गुस्से में आ गये. तभी ये बात जंगल की आग की तरह फैल गयी कि आक्रोशित मजदूरों ने मिल के दो अफसरों को ब्वॉयलर में फेंक दिया है. मजदूरों की बेकाबू भीड़ को हटाने के लिए पुलिस ने गोलियों की बौछार कर दी. 11 मिल मजदूर मारे गये. उस समय उत्तर प्रदेश और केन्द्र में जनता पार्टी की सरकार थी. इस हृदयविदारक घटना से पूरे देश में खलबली मच गयी. जनतंत्र की दुहाई देकर सत्ता में आने वाली जनता पार्टी की सरकार कठघरे में खड़ा हो गयी. मजदूरों, गरीबों की बात करने वाली सरकार की पुलिस ऐसा रक्पात कर सकती है, किसी को भरोसा नहीं हो रहा था. मजदूर नेता रहे जॉर्ज फर्नांडीस उस समय उद्योग मंत्री थे. वे कानपुर आये. स्वदेशी कॉटन मिल का राष्ट्रीयकरण किया गया. जान गंवाने वाले 11 मजदूरों और दो अधिकारियों की स्मृति में स्मारक बनाया गया. लेकिन जनता पार्टी को इस घटना की कीमत चुकानी पड़ी. कानपुर क्या पूरे उत्तर प्रदेश की राजनीति बदल गयी. 1980 में विधानसभा का चुनाव हुआ तो कानपुर जिले से जनता पार्टी का सफाया हो गया. यहां कांग्रेस आई को जीत मिली थी. जब कि 1977 में कानपुर जिले की सभी दस सीटों पर जनता पार्टी की जीत हुई थी.
2020 में 8 पुलिसवालों की हत्या, कैसी है चुनावी राजनीति?मैं कानपुर, अपने पुराने जख्म को वक्त के मरहम से ठीक कर ही रहा था कि एक और खूनखराबा हो गया. बिकरू गांव में 2 जुलाई 202 की रात एक बार फिर रक्तरंजित इतिहास लिखा गया. थान इंचार्ज समेत 8 पुलिसवालों की हत्या कर दी गयी. इस घटना ने पूरे प्रदेश की सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था को हिला दिया। दो साल बाद अब विधानसभा चुनाव हो रहा है. मेरी धरती पर 20 फरवरी को मतदान है. मैं कानपुर जिला हूं और इसमें दस विधानसभा सीटें हैं. 2017 के चुनाव में इन 10 सीटों में 7 पर भाजपा को विजय मिली थी. दो सीट सपा को और एक सीट कांग्रेस को मिली थी. जिस बिकरू गांव में अपराधियों ने 8 पुलिसवालों की हत्या की थी वह बिल्हौर विधानसभा क्षेत्र का हिस्सा है. अब यहां न कोई खौफ है न किसी सरगना का आतंक. बिकास दुबे के सहयोगी अमर दुबे की पत्नी खुशी दुबे बिकरू हत्याकांड की आरोपी है. कांग्रेस ने खुशी दुबे की बहन नेहा तिवारी को कल्याणपुर (कानपुर) विधानसभा क्षेत्र से उम्मीदवार बनाया है. सबके अपने-अपने तर्क हैं. यानी मेरे आंगन में आबाद सभी 10 विधानसभा सीटों पर ‘बिकरू की परछाईं’ पड़ सकती है. भाजपा के सामने सपा-रालोद-सुभासप की कठिन चुनौती है. बसपा और कांग्रेस भी मैदान में हैं. ऐसे में यक्ष प्रश्न यह है कि भाजपा कैसे अपनी 7 सीटें बरकरार रख पाएगी?

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