हाइलाइट्ससर्वशक्तिमान के रूप में लोक मानस में स्थापित राम के द्वंद्व पर अप्रतिम रचना पौराणिकता कायम रखते हुए चरित्रों को आधुनिक बनाना एक बड़ी सफलतादुनिया भर में चल रहे युद्ध के इस दौर में रचना की प्रासंगिकता और बढ़ जाती है इहिंदू धर्म और लोकचिंतन में राम शीर्ष पर हैं. संस्कृत साहित्य में चक्रवर्ती सम्राट रहे इस चरित्र को हिंदी साहित्य ने देवत्व के पद तक प्रतिष्ठित किया है. तुलसी के राम तो जन-जन और कण-कण के देवता के तौर पर लोक के मानस में बैठे हुए हैं. ये लोकजीवन में राम का प्रभाव ही है कि गोस्वामी तुलसीदास के इतने विशद और व्यापक ग्रंथों के बाद भी हिंदी साहित्यकारों के लिए राम प्रतीक और विषय के तौर पर आज भी प्रिय पात्र हैं. परवर्ती साहित्यकारों ने राम के चरित्र को अलग-अलग तरीकों से देखा और रचा है. रचना के इस क्रम और कर्म में नरेश मेहता का अपना अलग ही स्थान है. गोस्वामी तुलसीदास के सर्वशक्तिमान राम संशय और संभ्रम से ऊपर हैं. कथा और विश्वास के अनुसार उन्हें भ्रम और संशय व्याप ही नहीं सकता. लेकिन नरेश मेहता के राम संशय में पड़ते हैं. वे युद्ध की मानसिकता का विरोध करते हुए भी दिखते हैं. दरअसल, उन्होंने अपने समय में चल रहे युद्ध की स्थिति को राम से जोड़ने का साहस किया और बड़े ही कौशल के साथ राम के चरित्र को खड़ा करने के बाद भी विवादों में फंसने से खुद को बचा लिया. हां, इस नए प्रयोग से साहित्य जगत में एक बड़ी हलचल जरूर हुई, लेकिन राम की छवि अप्रभावित ही रही.
अपने इस तरह के प्रयोगों के कारण नरेश मेहता का साहित्य में एक अलग ही मुकाम है. उन्होंने लगातार नए प्रयोग किए. उन्होंने ‘संशय की एक रात’ नाम के अपने पौराणिक गीतिनाट्य में युद्ध में रत राम के वैचारिक उथल-पुथल का वर्णन किया है. कथानक युद्ध शुरू होने से ठीक पहले वाली रात का है. नरेश मेहता के मुताबिक युद्ध हर युग की समस्या है. ये तब भी समस्या थी और आज भी. ये काव्य-रचना चीन युद्ध की पृष्ठभूमि पर है. हो सकता है कि नरेश मेहता जिस युद्ध को आदिम समस्या के तौर पर देखते हैं उसे उठाने के लिए उन्हें राम जैसे ही किसी सशक्त चरित्र की जरुरत हो. वैसे भी नरेश मेहता ने खुद लिखा है कि उन्होंने जानबूझ कर ये स्थल प्रायोजन के साथ चुना है. दर्शन और तर्कशास्त्र की जानकारी रखने वाले जानते हैं कि जब भी कोई नई बात जानी गई है तो वर्तमान पर संशय की छाया के बाद ही नई रोशनी मिली है. संशय की एक रात में राम को ही संशय हो आता है.
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राम का संशयनरेश मेहता की रचना में राम का संशय युद्ध के परिणामों पर नहीं है. युद्ध में होने वाली विभिषिका को लेकर है-
युद्ध के उपरांत होगी शांति,उपलब्धियों की सिद्धिइस मिथ्यात्व सेइस मरीचिका सेमुक्ति दो
युद्ध न करने के लिए राम के मन में और भी तर्क आते हैं. ये तर्क राम के चरित्र को और पुष्ट करते हैं. साथ ही पूरे काव्य की प्रासंगिकता को प्रगाढ़ भी करते हैं.
युद्ध नहीं होगाक्योंकि सीता का हरणराम की व्यक्तिगत समस्या है…
हम साधारण जन,युद्ध प्रिय थे कभी नहीं..
मैं सत्य चाहता हूं युद्ध से नहींखड्ग से भी नहींमानव का मानव से सत्य चाहता हूंक्या यह संभव हैक्या यह नहीं है…
राम यहां ये भी स्वीकर करते हैं कि वे दरअसल, ‘साधारण जन’ हैं. उनकी ये स्वीकारोक्ति पूरी मिथकीय कथा को आधुनिक परिपेक्ष्य में सजीव कर देती है. ये रचनाकार का लाघव है कि उन्होंने हरेक मिथकीय पात्र को उस काल खंड के संदर्भ में अत्यंत प्रासंगिक कर दिया है. इस पूरी रचना में युद्ध-शांति के पक्ष-विपक्ष का संघर्ष एक रचनाकार की विराट सोच को शब्दों में बांध देता है. वो भी उसके अपने मूल स्वरूप को नष्ट किए बगैर. पूरी रचना चार सर्गों में है- सॉंझ का विस्तार और बालू तट, वर्षा भीगे अंधकार का आगमन, मध्यरात्रि की मंत्रणा और निर्णय तथा संदिग्ध मन का संकल्प और सवेरा.
अहिंसा की पैरवीदरअसल, नरेश मेहता महात्मा गांधी की अहिंसा के भी समर्थक रहे हैं. राम भी अहिंसा को ही मानते हैं. तभी उनके मन में प्रश्न खड़ा होता है. वैसे भी भारतीय परंपरा की धारणा है कि युद्ध के जरिए सत्य की असत्य पर विजय होती है. ऐसे में नरेश मेहता या कहा जा सकता है कि उनके राम के मन में प्रश्न आता है कि क्या सत्य की खोज के लिए युद्ध करना जरूरी है या महज युद्ध ही सत्य से मिला सकता है. ये ऐसा संशय है जिसे निश्चित तौर पर लोक कल्याणकारी कहा जा सकता है.
धनुष, बाण, खडग और शिरस्त्राणमुझे ऐसी जय नहीं चाहिएबाणविद्ध पारसी सा विवशसाम्राज्य नहीं चाहिए।मानव के रक्त पर पग धरती आतीसीता भी नहीं चाहिए, सीता भी नहीं।
राम यहीं नहीं रुकते. साफ तौर पर उन्होंने ये भी जता दिया है कि युद्ध एक कुंठा है –
लक्ष्मण मैं नहीं हूं कापुरुषयुद्ध मेरी नहीं है कुंठापर युद्ध प्रिय भी नहीं।
संशयग्रस्त राम को पिता दशरथ और जटायु की आत्माएं आकर समझाती हैं. वे भी अपने चरित्र के अनुरूप उन्हें युद्ध के लिए प्रेरित करते हैं. दशरथ कहते हैं –
कीर्ति यश नारी धराजय लक्ष्मीये नहीं है कृपामेरे पुत्र भिक्षा से नहींबर्चस्व से अर्जित हुए है आज तक
पिता दशरथ और जटायु के अलावा लक्ष्मण, हनुमान और विभीषण की मंत्रणा के बाद राम युद्ध के लिए तैयार होते हैं लेकिन यहां भी साफ कर देते हैं कि युद्ध उनकी मंशा नहीं है-
अब मैं निर्णय हूं, सबका, अपना नहीं.
आगे फिर वे प्रजातंत्र की उस व्यवस्था को अपनी समझ और सोच से ऊपर रखते दिखते हैं. वे कहते हैं कि भले वे सहमत न हों लेकिन जो जनमत है उसे स्वीकार ही करना होगा –
मुझसे मत प्रश्न करो, ओ मेरे विवेकसंशय की वेला अब नहीं रही।कवचित कर्म हूंप्रतिसूत युद्ध हूंनिर्णय हूं सबकासबके लिए.
15 फरवरी 1922 को मालवा मध्य प्रदेश के शाजापुर में जन्मे रचनाकार नरेश मेहता के इस दुनिया से चले जाने के दो दशक से ज्यादा का समय बीत चुका है. उनका निधन 22 नवंबर 2000 में हुआ था. इन दो दशकों बाद दुनिया में भर में युद्ध की स्थिति है. रूस यूक्रेन की बात की जाय, या इज्रराइल फिर हमास की लड़ाई हो, युद्ध की आग दुनिया भर में अपना असर दिखा रही है. ऐसे वक्त में नरेश मेहता जैसे सजग रचनाकार एक बार फिर से प्रासंगिक हो उठते हैं.
.Tags: Hindi Literature, LiteratureFIRST PUBLISHED : November 21, 2023, 19:50 IST
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