हाइलाइट्सकांशीराम सहित तीन लोग थे 70 के दशक में बामसेफ के संस्थापक, जिसका बाद में हो गया विभाजनकांशीराम नौकरी छोड़ बामसेफ को खड़ा करने में जुटे बाकी दो ने नौकरी के साथ इसे सपोर्ट किया1986 में कांशीराम ने कहा कि बामसेफ को अब सियासी लड़ाई लड़नी होगी तो उन्होंने बीएसपी खड़ी कीउत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती दलित वर्ग में नई हलचल लाने की कोशिश कर रही हैं. जब बीएसपी का ग्राफ गिर रहा है और इसे उठाना मुश्किल नजर आ रहा है तब मायावती फिर से उस प्रयोग को अपने तरीके से जिंदा करने की कोशिश कर रही हैं, जिसे कांशीराम ने बामसेफ के नाम से खड़ा किया था लेकिन वो फिर खुद ही उसे सक्रिय नहीं रख पाए. हालांकि ये संगठन जिंदा है. चल रहा है लेकिन अब वो खुद कम से कम बीएसपी से एकदम अलग रखता है. हालांकि मायावती फिलहाल बामसेफ चला रहे लोगों को खारिज करती रही हैं. माना जा रहा है वो इस बामसेफ के समानांतर फिर से उसी तरह का ढांचा कम से कम यूपी में तो खड़ा करने की कोशिश में लग चुकी हैं.
बामसेफ (BAMCEF)का फुल फॉर्म है बैकवर्ड (एसटी, एसटी, ओबीसी) एंड माइनॉरिटी कम्युनिटीज एम्पलाई फेडरेशन. जमीनी स्तर पर बीएसपी के आधार को मजबूत करने के लिए इसे फिर से यूपी में सक्रिय करने की रणनीति तैयार की गई है. बामसेफ की कमिटियों का नए सिरे से गठन करने की बात है. हर जिले में बामसेफ का ढांचा बनेगा. फिर से ढांचा विधानसभा क्षेत्र स्तर तक जाएगा.
कांशीराम और उनके दो साथियों ने जब 06 दिसंबर 1978 को इसे शुरू किया था तो इसका दर्शन और लक्ष्य बिल्कुल अलग था. इसके दायरे में अगर दलित, पिछड़ा और अल्पसंख्यक वर्ग था तो ब्राह्मणवाद को लेकर प्रबल विरोध की भावना भी. अब मायावती जिस बामसेफ का ढांचा बना रही हैं, उसमें दलितों, पिछड़ों और वंचितों के साथ मुस्लिमों और ब्राह्मणों को जोड़ने का अभियान चलेगा.
आखिर मायावती क्यों यूपी में बामसेफ को जिंदा करना चाहती हैं. एक समय था जब उन्होंने खुद ही इस संगठन को यूपी में किनारे खिसका दिया था.
दो बामसेफ संगठनदेश में फिलहाल दो बामसेफ संगठन बन गये हैं. एक संगठन जिसके अध्यक्ष हैं बामन मेश्राम, जो खुद को असल संगठन बताती है, तमाम राज्यों में इसका ढांचा फैला हुआ है. ये खुद को बीएसपी के साथ नहीं मानती. दूसरी बामसेफ वो है जिसको मायावती खड़ा कर रही हैं और उनके लोग कहते हैं कि असल बामसेफ तो बहनजी का ही है.
तो सुनिए बामसेफ की कहानी, दो कर्मचारी सस्पेंड हुए और फिर ….अब आइए आपको सुनाते हैं उस संगठन की कहानी, जो 70 के दशक में बनी और बामसेफ कहलाई. जयपुर (राजस्थान) के रहने वाले दीनाभाना पुणे की गोला बारूद फैक्टरी में चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी के रूप में काम कर रहे थे. वह वहां की एससी, एसटी वेलफेयर एसोसिएशन से जुड़े हुए थे. जब उन्होंने अंबेडकर जयंती पर छुट्टी को लेकर हंगामा किया तो बदले में उन्हें सस्पेंड कर दिया गया. वह वाल्मीकि समाज से आते थे. उनका साथ देने वाले डीके खापर्डे का भी यही हश्न हुआ. वे महार जाति से थे. कांशीराम वहां क्लास वन अधिकारी के रूप में काम कर रहे थे. जब पूरा मामला उन्हें पता चला तो उन्होंने कहा कि बाबा साहब अंबेडकर की जयंती पर छुट्टी न देने वाले की जब तक छुट्टी न कर दूं, तब तक चैन से नहीं बैठ सकता.
कांशीराम ने 70 के दशक में दीनाभाना और डीके खापर्डे के साथ मिलकर बामसेफ की स्थापना की थी. फिर वह अपनी अधिकारी की नौकरी छोड़कर इसे मजबूत करने में जुट गए थे. (NEWS18)
शुरू में बीएसपी के लिए क्या थी बामसेफये वो घटना है जिसने दलित कर्मचारियों और अधिकारियों के हक के लिए काम करने वाले सबसे बड़े संगठन बामसेफ (Backward And Minority Communities Employees Federation) को जन्म दिया. जो इतनी बड़ी ताकत है कि बसपा जैसी पार्टी इसके बिना इतनी ऊंचाई नहीं हासिल कर सकती थी. कांशीराम के दौर तक इस संगठन ने बसपा के लिए वैसा ही काम किया जैसा भाजपा के लिए आरएसएस करता है. फिर कहा जाने लगा कि बामसेफ ने खुद मायावती से अलग कर लिया है
कांशीराम के साथ इन दो ने डाली इसकी नींवआमतौर पर लोग यह जानते हैं कि बामसेफ की स्थापना कांशीराम ने की. लेकिन सच ये है कि इसकी नींव तो दीनाभाना और डीके खापर्डे की वजह से रखी गई. ये दोनों पहले और दूसरे संस्थापक थे. कांशीराम तीसरे संस्थापक रहे. बामसेफ के अध्यक्ष वामन मेश्राम बताते हैं, “दीनाभाना बहाल हुए. उनका ट्रांसफर दिल्ली कर दिया गया. मेश्राम के मुताबिक कांशीराम ने उस अधिकारी की पिटाई की, जिसने उन्हें सस्पेंड किया था. फिर कांशीराम ने सोचा कि जब हमारे जैसे अधिकारियों पर अन्याय होता है तो देश के और दलितों, पिछड़ों पर कितना होता होगा. कांशीराम ने नौकरी छोड़ दी और बामसेफ बनाया.”
तब साइकल पर चलते थे कांशीराम लोग बताते हैं कि एक जमाना था जब कांशीराम बामसेफ की शुरुआत कर रहे थे तब कांशी राम साइकल से चलते थे. आर्थिक तौर पर वो मुश्किल हालात से भी जूझते थे. संस्था को स्थापित करने के क्रम में वह ट्रेन के अनारक्षित डिब्बों में सफ़र करते थे. भूखे पेट भी सोते थे. साइकल से लंबी लंबी यात्राएं करते थे.
ये वामन मेश्राम हैं, जो कई सालों से उस बामसेफ के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं, जिसे देश में असल संगठन मानने का दावा किया जाता रहा है.
नौकरी छोड़ दी थी कांशीराम नेमेश्राम के मुताबिक, “कांशीराम तीसरे नंबर पर होकर भी पहले नंबर पर इसलिए आए, क्योंकि उन्होंने नौकरी छोड़ दी थी. उनके पास समय ही समय था. वे उस एससी, एसटी वेलफेयर एसोसिएशन के अध्यक्ष बना दिए गए, जिससे दीनाभाना जुड़े हुए थे. फिर उन्हें समझ में आया कि केवल एससी, एसटी के लिए काम करने से बात नहीं बनेगी. परिवर्तन के लिए एससी, एसटी, ओबीसी और इनसे कन्वर्टेट अल्पसंख्यकों को जोड़ना होगा.”
फिर हुआ बामसेफ का जन्म6 दिसंबर 1973 को ऐसा एक संगठन बनाने की कल्पना की गई. फिर 6 दिसंबर 1978 को राष्ट्रपति भवन के सामने बोट क्लब मैदान पर इसकी औपचारिक स्थापना हुई. कन्वेंशन का नाम था ‘बर्थ ऑफ बामसेफ’. मेश्राम कहते हैं कि यदि दीनाभाना और डीके खापर्डे न होते तो न बामसेफ होता और न आंबेडकरवादी आंदोलन चल रह होता.
यूपी से लेकर पंजाब तक ये मजबूत संगठन बनाबामसेफ के बैनर तले कांशीराम और उनके साथियों ने दलितों पर अत्याचारों का विरोध किया. कांशीराम ने दिल्ली, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में दलित कर्मचारियों का मजबूत संगठन बनाया. समझाया कि अगर उन्हें अपना उत्थान करना है तो मनुवादी सामाजिक व्यवस्था को तोड़ना जरूरी है.
अब बामसेफ के साथ कितने लोग मेश्राम ने एक इंटरव्यू में बताया, “कई अधिकारी और कर्मचारी इस संगठन को चलाने के लिए अपनी तनख्वाह का अधिकांश हिस्सा दे देते थे. देश में इस वक्त 31 राज्यों के 542 जिलों में करीब 25 लाख लोग संगठन से जुड़े हए हैं. इसके 57 अनुशांगिक संगठन हैं. जिसमें कई प्रोफेशन के लोग हैं. राष्ट्रीय मूल निवासी बहुजन कर्मचारी संघ नाम से हमारा ट्रेड यूनियन संगठन भी है, जो एससी, एसटी, ओबीसी एवं माइनॉरिटी कर्मचारियों के हितों को सुरक्षित रखने का काम करता है.”
तो फिर डीएस-4 क्यों बना?बामसेफ के जरिए कर्मचारियों अधिकारियों को गोलबंद करने काम जारी था. इसके साथ-साथ सामान्य बहुजनों को संगठित करने के लिए कांशीराम ने 1981 में डीएस-4 (दलित शोषित समाज संघर्ष समिति) की स्थापना की.
ठाकुर, ब्राह्मण, बनिया छोड़, बाकी सब हैं डीएस-4इसका नारा था ‘ठाकुर, ब्राह्मण, बनिया छोड़, बाकी सब हैं डीएस-4’. यह राजनीतिक मंच नहीं था, लेकिन इसके जरिए कांशीराम न सिर्फ दलितों बल्कि अल्पसंख्यकों के बीच भी एक तरह की गोलबंदी कर रहे थे. डीएस-4 के तहत ही उन्होंने जनसंपर्क अभियान चलाया. साइकिल मार्च निकाला, जिसने सात राज्यों में लगभग 3,000 किलोमीटर की यात्रा की. अगड़ी जाति के खिलाफ नारों के जरिए वे दलितों, पिछड़ों को जोड़ते रहे.
…फिर बसपा बनाईवे यहीं रुकने वाले नहीं थे. साल 1984 में कांशीराम ने फैसला लिया कि ‘राजनीतिक सत्ता ऐसी चाभी है जिससे सभी ताले खोले जा सकते हैं’. बताते हैं कि बामसेफ के कई संस्थापक सदस्य कांशीराम के चुने इस नए रास्ते से अलग हो गए. हालांकि उनके साथ जुड़े रहने वाले बामसेफ कार्यकर्ता भी कम नहीं थे. बामसेफ के दूसरे संस्थापक सदस्य डीके खापर्डे ने इसकी कमान संभाली और यह आंदोलन जारी रहा.
समाजशास्त्री प्रो. विवेक कुमार लिखते हैं कि खापर्डे ने इस आंदोलन को ‘बहुजन’ पहचान के साथ-साथ ‘मूल निवासियों’ से भी जोड़ा. मूल निवासी संकल्पना बताती है कि, ‘मनुवादी ही आर्य-आक्रांता हैं जिन्होंने यहां के ‘मूलनिवासियों’ को छल से सत्ता-संसाधन से वंचित कर दिया है. उनके आगमन से पहले ‘मूल निवासी’ इस भारतभूमि के स्वामी हुआ करते थे’.
बामसेफ ने शिक्षित वर्ग पर ही क्यों लक्ष्य रखा?बामसेफ के मुताबिक शिक्षित वर्ग को जीवन के नए दृष्टिकोण का पता चलता है और इस दृष्टिकोण के तहत यह वर्ग अपने वर्तमान जीवन स्तर की समीक्षा करता है, जिससे उसे अपने स्तर का पता चलता है. अगर उसे जीवन स्तर घटिया नजर आए तो उसे बदलने के लिए सोचता है. ऐसी व्यवस्था के सपने देखता है जिसमें जीवन स्तर घटिया न हो, इसलिए बुद्धिजीवी वर्ग नए समाज और व्यवस्था का सपना देखता है.मेश्राम से जुड़े बामसेफ के लोगों का मानना है कि हालांकि पिछले दशकों में इसके सांगठनिक ढांचे में कई बदलाव हुए फिर भी आज देश में यही एकमात्र ग़ैर राजनीतिक, और ग़ैर धार्मिक संगठन है जो 1978 में अपनी औपचारिक स्थापना के बाद से लगातार अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ी जातियों तथा धर्मान्तरित अल्पसंख्यक समाजों के सरकारी कर्मचारियों को संगठित करने में लगा है.
यूपी में क्या मायावती का बामसेफ मजबूत होकर उभरेगादरअसल 1986 की शुरुआत में जब बामसेफ का विभाजन हुआ तो कांशीराम ने घोषणा की कि वे अब बीएसपी के अलावा किसी अन्य संगठन के लिए काम करने को तैयार नहीं हैं. तब बामसेफ का वो हिस्सा जो कांशीराम से जुड़ा, वो चुनावी लामबंदी में बीएसपी की मदद करने के लिए एक शैडो संगठन बन गया. लिहाजा उसको आज भी शैडो बामसेफ ही अधिक कहा जाता. कांशीराम के जाने के बाद बामसेफ में बचे लोगों ने 1987 में बामसेफ को एक स्वतंत्र गैर-राजनीतिक संगठन के रूप में पंजीकृत किया. फिलहाल बामसेफ के राष्ट्रीय अध्यक्ष वामन मेश्राम हैं. अब देखने वाली बात होगी कि यूपी में मायावती का बामसेफ क्या फिर मजबूत होकर उभरेगा
Tags: BSP, BSP chief Mayawati, Mayawati, Mayawati politicsFIRST PUBLISHED : September 20, 2024, 20:22 IST