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हिंदी में ब्रज का बांकापन मिला कर कुछ बनता है, तो वो काका हाथरसी की रचना है. काका के सामने जो कुछ भी आता, उनका दिमाग उसे एक कैमरे की तरह कैप्चर करता और वे उसी पर छंद रच देते. उनकी रचनाएं एकबारगी तो गुदगुदाती हैं, लेकिन अगले ही पल अपनी संजीदगी में समेट कर सोचने को भी मजबूर कर देती हैं. आस- पास के प्रति तो सभी रचनाकार सजग होते हैं, लेकिन काका को आते-जाते भी कुछ दिखा तो उन्होंने उस पर जो रचा, उसे पढ़ कर या सुन कर लगता है, जैसे कैमरे ने फोटो खींची और ऑटोमोशन से सजा सजाया प्रिंट आउट दे दिया हो. आजादी के पहले 1906 में जन्मे काका हाथरसी को जब देश में क्रिकेट के प्रति बढ़ती दीवनगी दिखी तो क्रिकेट का पहाड़ा ही रच दिया. ध्यान रखने वाली बात है कि पहले पहाड़ा याद करना सबसे ज्यादा जरुरी होता था. ज्यादातर पुराने लोग बच्चों को पहाड़ा पूछ कर ही परखते थे-

क्रिकेट एकम क्रिकेटक्रिकेट दूनी विकेटक्रिकेट तिया मैचक्रिकेट चौका कैचक्रिकेट पंचा फिल्डिंगक्रिकेट छक्का बिलिंगक्रिकेट सत्ता सेंचुरीक्रिकेट अट्ठे कमेंट्रीक्रिकेट नम्मे डाउटक्रिकेट दस्सा आउट.

कैसे बने ‘काका’काका हाथरसी दरअसल रस पैदा करने वाले रचनाकार थे. जिनके लिए पेंटिंग और संगीत भी कविता से कम महत्वपूर्ण था. उनका नाम शुरू से ही काका हाथरसी नहीं था, बल्कि ये भी उनकी रंगप्रियता से पैदा हुआ नाम था. पहले उनका नाम प्रभूलाल गर्ग था. वे शुरुआती दिनों में नाटकों में अभिनय भी करते थे. उन्होंने ‘आज की दुनिया’ और ‘समाज के आंसू’ नाम के दो नाटकों में काम किए जो बहुत मशहूर हुए. उसमें उन्होंने ‘काका’ नाम का करेक्ट्र निभाया. काका विलेननुमा करैक्टर था. इसके बाद प्रभु दयाल जहां आते-जाते लोग आपस में कह उठते देखो ‘काका’ जा रहा है. इसी के बाद उन्हें अपना नाम काका रखने की सूझी. हाथरस के तो ही. लिहाजा मित्रों के सुझाव पर नाम के आगे हाथरसी भी जोड़ लिया. बाद में उन्होंने लिखा कि ये हास्यरस नाम का स्थान होगा, जिसे अंग्रेजों ने हाठरस कहा होगा और ये हाथरस बन गया होगा. उनके हिसाब से बनारस और हाथरस दो ही स्थान थे जहां रस पहले से सिद्ध था. रसों के प्रति उनका कुछ ऐसा आग्रह था कि नौ रसों को बढ़ा कर 26 कर दिया और उस पर लिखा भी –

नौरस ही क्यों मानते साहित्यिक विद्वानइसमें षटरस जोड़ कर पन्द्रह रस पहचान.पन्द्रह रस पहचान, प्रेम रस को क्यों छोड़ोअमरस, गोरस, चरस, दरस, बतरस को भी जोड़ो.कह काका कवि सारस ढारस पारस फारस गिन लो रस छब्बीस हाथरस और बनारस.

साहित्य, संगीत और कला की सुरुचिनाटकों में तैयारी में फंसे और मुनीबी की नौकरी गंवा दी. रोजी-रोजगार के लिए पेंटिंग भी की. फिर संगीत पर पुस्तक छपवाई. उसकी कमाई से अच्छी आमदनी हुई. इस पैसे को लगा कर उन्होंने ‘संगीत’ नाम से मासिक पत्र छापना शुरु कर दिया. पत्रिका चल निकली और काका आराम से अपनी रचनाधर्मिता में जुट गए. उन्होंने अपनी आत्मकथा “काका हाथरसी मेरा जीवन ए वन” में लिखा है कि उन्हें भर्तहरि के श्लोक से रचनाधर्मिता की प्रेरणा मिलती रही-

साहित्यसंगीतकलाविहिनःसाक्षातपशुः पुच्छविषाणहीनः

हांलाकि अपनी आत्मकथा में उन्होंने बताया है कि नटखटपन उन्हें जन्म से ही मिला था. उन्होंने ये भी लिखा है कि पैदा हुआ तो लोगों के समझ में नहीं आ रहा था कि शिशु हँस रहा है या रो रहा है. बाद में बड़ी- बूढ़ी महिलाओं ने उन्हें इसका रहस्य समझाते हुए बताया कि पैदा होने के बाद उनकी मुख मुद्रा से ये स्पष्ट ही नहीं हो पा रहा था. बहरहाल, धन के अभाव के कारण उन्हें चौथी के बाद स्कूली शिक्षा छोड़नी पड़ी. अब ट्यूशन के जरिए पढ़ाई करने कई पढ़े-लिखे लोगों के पास जाना पड़ता. अंग्रेजी पढ़ने जिस वकील लक्ष्मीचंद के यहां जाते थे उनके बारे में ही एक कविता लिखना शुरु कर दिया –

एक पुलिंदा बांध कर दीं उस पर सील,खोला तो निकले वहां लखमीचंद वकील.लखमीचंद वकील बदन में इतने भारी,बैठ जाएं तो पंचर हो जाती है लारी.अगर कभी श्रीमान उंट गाड़ी में जाएं,पहिए चूं चू करें ऊंट को मृगी आएं.

कविता पूरी होने से पहले ही एक साथी ने छीन कर वकील साहब तक कविता पहुंचा दी. वहां पिटाई हुई. लेकिन बुढ़ापे तक काका का बांकापन कम नहीं हुआ. लिखते हैं कि ऊपर जा कर वकील साहब को वही कविता सुनाऊंगा और पिटाई का बदला लूंगा.

समय के साथ काका की लोकप्रियता बढ़ती गई, लेकिन मन में विदेश जाने की इच्छा था. ये इच्छा इस कदर प्रबल थी कि बालाजी के दर्शन के समय किसी ने कहा काका बालाजी से कुछ मांग लो. उन्होंने विदेश यात्रा ही मांग ली थी. बालाजी की कृपा हो या काका की लोकप्रियता वे विदेश गए- बैंकाक. पहली विदेश यात्रा शुरु होते ही उन्होंने लिख डाला –

काका चले विदेश, भाग्य दिखाए खेलकलकत्ता तक आ गए पकड़ कालका मेल.पकड़ कालका मेल रेल में धक्के खाएजब विमान में बैठे लगा स्वर्ग में आए.लेकिन उससे पहले बड़ी शर्म आती हैजबकि चोर की तरह तलाशी ली जाती है.

आज बड़े से बड़े आदमी को हवाई अड्डे पर तलाशी लेने पर शायद ही कुछ अपमानजनक लगता हो, लेकिन काका ने जो महसूस किया लिख दिया. बाद में अमेरिका की यात्रा की और वहां तीन महीने रहे. उन्होंने वहां के अपने अनुभव भी पूरी सादगी के साथ रच दिया–

ठहरे जिन जिन घरों में, दिखे अनोखे सीनबाथरूम में भी वहां, बिछे हुए कालीन.बिछे हुए कालीन, पैंट ने छीनी साड़ी,चलें दाहिने हाथ वहां पर मोटर गाड़ी.उलटी बातें देख, उड़े अकल के तोते,बिजली के स्विच यहां पर ओन उपर को होते.

अमरिका में ही रहते हुए काका को इंदिरा गांधी की हत्या का दुखद समाचार मिला तो उस पर उन्होंने बहुत दुखी हृदय से लिखा –

बुरी खबर यह सुनी जब मन को पहुंचा क्लेश,हाय हाय चहुं दिश मची, हिल गए देश विदेश.

वीर रस की रचनाऐसा नहीं कि उन्होंने हास्य और व्यंग्य तक ही अपने को महदूद रखा. उनकी रचनाओं में वीर रस भी है. अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह के सौ साल पूरे होने पर उन्होंने 1857 में लिखा –

अपने शौर्य और साहस की तुमको झलक दिखाऊंगा,नहीं सुहाती शांति मुझे मैं गीत क्रांति के गाऊंगा.सांस रोककर सुनना मित्रों मन की व्यथा बताता हूं,अट्टारह सौ सत्तावन की तुमको कथा सुनाता हूं.

ब्रजभूमि में छेड़-छाड़ तो उनकी रचनाओं में बहुत से रूपों में दिखती है –

लता सरीखे स्वर मिले सिम्मी जैसे सैननूतन से नखरे मिले निम्मी जैसे नैननिम्मी जैसे नैन, कृपा करना प्रभु ऐसीबैजयंती- सी भंवें, कमर हो हेलन जैसीकह काका ललिता पवार सी मम्मी पाऊंपृथ्वीराज -से पापा मिलें, मैं धन्य हो जाऊं

पुरानी पीढ़ी जिस तरह से उस दौर की युवा पीढ़ी को पश्चिम और फिल्मों की तरफ से आने वाले असर से बचाना चाहती थी. काका उस पर भी तंज करने से नहीं चूके उन्होंने पश्चिम के असर से बचने के लिए लिखा. हालांकि ये भी बताया है कि ये किसी समस्यापूर्ति के लिए लिखी गई ग़ज़ल का हिस्सा है –

क्लब में नाचती है, साथ लेकर एक साहब को,बचाना मेरी गीता को, वो बाइबिल न बन जाए.

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जब काका को पद्मश्री मिलने की सूचना मिली तो उन्होंने उसे भी रचने का मौका नहीं छोड़ा. और जो लिखा वो पढ़ने याद रखने लायक बन गया –

तार बधाई के मिले फोन करे टन टन्नपद्मश्री का नाम सुन काकी हो गईं सन्नकाकी हो गईं सन्न, बड़ी चर्चा है जिसकीक्या करती है, काम उमर है कितनी उसकीअमरीका से यही सीखकर आए हो क्या ?मेरे लिए सौत का तोहफ लाए हो क्या?अस्सी साला हो रहे, फिर भी ऐसे कामशर्म बुढ़ापे की करो, होइ नाम बदनामहोइ नाम बदनाम, चाल नहीं चलने दूंगीभारतीय नारी हूं, दाल न गलने दूंगीखबरदार जो, मेरे घर में रक्खी लाकरटांग पकड़, कर दूंगी उसको घर से बाहर

यही नहीं काका ने पद्मश्री लेने के लिए हाथ भी नहीं उठाया. राष्ट्रपति को उनके हाथ उठा कर सम्मान पत्र देना पड़ा. इस पर भी वे अपनी सफाई लिखते हैं –

तुलसी कर पर कर करो, करलत कर न करो,जा दिन करतल पर करो ता दिन मरण करो।

काका हाथरसी दीर्घायु हुए. तकरीबन पूरी उम्र तक सक्रिय रहे. 87 साल का होने पर अपने लंबे और स्वस्थ जीवन के रहस्य के तौर पर उन्होंने जो दो पंक्तियां लिखीं वो अपने आप में अद्भुत है –

भोजना आधा पेट कर, दुगुना पानी पीव,तिगुना श्रम, चौगुना हंसी, वर्ष सवा सौ जीव।
.Tags: Books, Hindi Literature, Hindi poetry, Hindi Writer, LiteratureFIRST PUBLISHED : September 19, 2023, 13:09 IST

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