झांसी. बुंदेलखंड (Bundelkhand) में दीपावली के एक दिन बाद होने वाले मौनियां नृत्य (Mauniya Dance) की धूम मची है. यहां मौनी नर्तकों की टोली गांव गांव में पहुंच रहीं हैं. यहां ये परंपरा हजारों साल पुरानी है. इसे यहां होने वाली गोवर्धन पूजा (Govardhan Puja) के साथ मनाया जाता है. इसे गोवर्धन पर्वत उठाने के बाद भगवान कृष्ण की भक्ति में प्रकृति पूजक परम्परा के तौर पर मनाया जाता है, जिसमें दिवारी गीत शामिल होते हैं. इसे दिवारी नृत्य भी कहते हैं. मौनियां की टीम 12-12 गांव जाकर 12 साल तक नृत्य करती है. एक टोली जब इसे शुरू करती है तो उसे मौन साधना कर 12 अलग अलग गांव में 12 साल तक भ्रमण करती है. उसके बाद इसका विसर्जन करा दिया जाता है.
मौनियां बुंदेलखंड के लगभग सभी जिलों में सबसे फेमस और पारंपरिक नृत्य है. मौनी सैरा ऐसा लोकनृत्य है जिसका इतिहास हजारों साल पुराना है. यह पूरी तरह कृष्ण भक्ति को समर्पित है, जिसमें प्रकृति और गोवंश के प्रति संरक्षण को मैसेज दिया जाता है. गोवर्धन पूजा को लोग अन्नकूट पूजा के नाम से भी जानते हैं. दिवाली के अगले दिन यानि गोवर्धन पूजा होती है. सबसे बड़े सनातनी त्योहारों में शामिल दीपावली की जितनी भव्य तैयारी पूरे देश में होती है, उसी तरह बुंदेलखंड में दीपावली के एक दिन बाद गोवर्धन पूजा का भी महत्व है. इस दिन अधिकांश गांवों में कई टोलियां ग्वालों के भेष में निकलती हैं. गाय बछड़े के संरक्षण के लिए मौनियां नृत्य करते हुए साज बाज और पारंपरिक गीतों की धुन पर नाचते हुए निकलते हैं.
मौनियां बुंदेलखंड के लगभग सभी जिलों में सबसे फेमस और पारंपरिक लोकनृत्य है. इसका इतिहास हजारों साल पुराना है.
12 साल तक 12- 12 गांव मौन साधकर घूमते हैं ग्वाले
प्रसिद्ध इतिहासकार हरगोविंद कुशवाहा बताते हैं कि मौनियां बुंदेलखंड का सबसे प्राचीन और प्रमुख लोकनृत्य है. इसमें 12 गांव में 12 साल तक नाच गाकर परंपरा निभाई जाती है, ताकि प्रकृति की रक्षा और गाय बैल के संरक्षण हो. इसके पहले इसकी टोली में शामिल ग्वाले मौन साधना की शपथ लेते हैं, फिर उनकी टोली निकलती है. इसमें एक नेता होता है जिसे बरेदी कहते हैं. यह टोलियां जो गीत गाते हुए चलती हैं उनमें शृंगार, वैराग्य, नीति, कृष्ण, महाभारत, धर्म और दिवारी गाई जाती है.
दिवारी लोकनृत्य का विष्णु के बावन अवतार से भी जुड़ा है इतिहास
दिवारी एक परंपरागत लोकनृत्य है, जिसे भक्त प्रहलाद के नाती राजा बलि के वंश से जोड़कर देखा जाता है. बुंदेलखंड के ऐरच में ही भक्त प्रहलाद के राज का इतिहास बताया जाता है. यहां प्रहलाद के पुत्र वैरोचन वैरोचल थे जिनका पुत्र ही आगे चलकर बलि हुआ. यहां से भगवान विष्णु के बावन अवता कर कथा प्रचलित है. इतिहासकार हरगोविंद कुशवाहा बताते हैं कि राजा बलि को छलने के लिए ही बावन अवतार लिया गया था. इसके पहले वैरोचन की पत्नी जब सती हो रही थीं तो उन्हें भगवाने ने दर्शन देकर कहा था कि आपके होने वाले पुत्र के सामने हम स्वयं भिक्षा मांग ने के लिए आएंगे. इसे सुनकर सती होने के लिए पहुंची उनकी पत्नी ने दिवारी गायन शुरू किया था. इसमें उन्होंने गाया था— ‘भली भई सो ना जरी अरे वैरोचन के साथ, मेरे सुत के सामने कऊं हरि पसारे हाथ…’, इस गीत के साथ ही मौनियां नृत्य शुरू कर देते हैं जो पूरे 12 घंटे तक 12 ग्रामों में चलता है. हरगोविंद बताते हैं कि यह 12 साल तक चलता है और उसके बाद मौनी दशाश्वमेध घाट पर इसका विसर्जिन कर देते हैं.
क्यों होती है गोवर्धन पूजा
गोवर्धन पूजा बुंदेलखंड के तकरीबन सभी गांव में होती है. यह भगवान कृष्ण के अवतार के बाद द्वापर युग से प्रारम्भ हुई है. इसमें हिन्दू धर्मावलंबी घर के आंगन में गाय के गोबर से गोवर्धन नाथ की आकृति बनाकर उनका पूजन करते हैं. गोवर्धन पूजा करने के पीछे धार्मिक मान्यता है कि भगवान श्रीकृष्ण इंद्र का अभिमान चूर करना चाहते थे. इसके लिए उन्होंने गोवर्धन पर्वत को अपनी छोटी अंगुली पर उठाकर गोकुल वासियों की इंद्र से रक्षा की थी. माना जाता है कि इसके बाद भगवान कृष्ण ने स्वंय कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा के दिन 56 भोग बनाकर गोवर्धन पर्वत की पूजा करने का आदेश दिया दिया था. तभी से गोवर्धन पूजा की प्रथा आज भी कायम है.पढ़ें Hindi News ऑनलाइन और देखें Live TV News18 हिंदी की वेबसाइट पर. जानिए देश-विदेश और अपने प्रदेश, बॉलीवुड, खेल जगत, बिज़नेस से जुड़ी News in Hindi.
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