झांसी. बुंदेलखंड (Bundelkhand) में सियासी पारा चढ़ने के साथ ‘गोरी नैना न मार’ एक बार फिर तैयार है. जी हां! ‘गोरी नैना न मार… भर के दुनाली चाहे मार दो..’ कोरोना लॉकडाउन के बीच खाली बैठीं बुंदेलखंड की राई नृत्यांगनाएं (Rai Dancer) चुनावी आयोजनों के लिए तैयार हाने लगीं हैं. उत्तर प्रदेश विधनसभा चुनाव नजदीक आते ही उनकी डिमांड बढ़ने लगी है. यह चुनावी सभाओं में भीड़ जुटाने के लिए नेताओं के सामने सबसे आसान जरिया होती हैं. ये लंबे समय तक भीड़ को बांधे रखती हैं और यही कारण है कि राई नृत्यांगनाओं की टोलियों को चुनावों से भी खास उम्मीद रहती है. बुंदेलखंडी राई को यूपी और एमपी के कई जिलों में सबसे फेमस लोकनृत्यों में से एक माना जाता है. देशी धुनों पर धूम मचाने वाली राई ऐसा नाच है, जिसमें नर्तकियां लोगों की भीड़ जुटाती भी हैं और अपने अदाजों में बांधकर नचाती भी हैं.
बुंदेलखंड में कोई भी आयोजन हो, उत्सव हो उसमें राई लोकनृत्य का अपना अलग ही स्थान होता है. ये सैकड़ों साल पुराना लोकनृत्य, जो यहां की बेड़नी समुदाय की जीविका का प्रमुख हिस्सा रहा है. इसके साथ अब कई टोलियां भी राई सैरा, ढिमरयाई जैसे लोकनृत्यों को आगे बढ़ा रही हैं. लोग बड़े आयोजनों और पार्टियों में राई नृत्यांगनाओं को बुलात रहे हैं. महोत्सवों में भी इनके लिए बड़े मौके होते रहे हैं, लेकिन कोरोना की लहर के बाद राई डांसरों के सामने कई चुनौतियां रहीं. काम नहीं था तो वह आर्थिक परेशानियों से भी घिर गईं. अब विधानसभा चुनाव सामने हैं तो राई डांसरों के सामने भी अपनी प्रस्तुति के मौके खुलने लगे हैं.
दरअसल बुंदेलखंड के 7 जिलों में आने वाली सभी 19 सीटों पर ग्रामीण वोटरों को प्रभावित करने के लिए लोकगीत और लोक नृत्य दोनों ही महत्व रखते हैं. ऐसे में जब किसी नेता की सभा होती है तो उसमें भीड़ जुटाने और भीड़ को लंबे समय तक बांधे रखने के लिए राई डांसर और लोकगीत कलाकारों की डिमांड बढ़ जाती है. ऐसा ही इस बार भी देखने को मिल रहा है.
बुंदेलखंड के 7 जिलों में आने वाली सभी 19 सीटों पर ग्रामीण वोटरों को प्रभावित करने के लिए लोकगीत और लोक नृत्य दोनों ही महत्व रखते हैं.
‘रास’ से उत्पन्न हुआ राई
राई की उत्पत्ति ही ‘रास’ शब्द से हुई है, लेकिन इसकी एक अलग ही मर्यादा रही है. ये राजा महाराजाओं के दरबारों की शान रहा है. बुंदेला और चंदेला राजाओं की खास पसंद रहा है, जिसमें लंबे घूंघट में ढकी नर्तकी की एक अपनी ही अलग नृत्यशैली रही है, लेकिन वक्त के साथ ये बदल रही है. कई जगहों पर इसमें अश्लीलता का तड़का भी दिखने लगा है. भीड़ जुटाने के लिए बुंदेली पट्टी राई डांस सबसे सटीक आयोजन है. चुनावी सभाओं के मंच पर इसे अक्सर देखा जा सकता है. एक नर्तकी बताती हैं— राई लोकनृत्य के लिए बड़े मंचों पर अवसर भले ही कम हों, लेकिन ये लोेगों को खास पसंद आता है. वे माहौल और डिमांड देखते हुए साज बाज के साथ अपने पैरों की थिरकन बढ़ाती हैं.
गोरी नैना न मार…
ये समूह लोकनृत्य है. चार लड़कियां अपने सिर को लंबे नेट के पारदर्शी घूंघट से ढके स्टेज पर पहुंचती हैं और अभिवादन के साथ बुंदेली लोक नृत्य राई का आगाज शुरू हो जाता है. गोरी नैना न मार, गोरी नैना न मार, भरकें दुनाली चाहे मार दो… गाने के साथ लोग लुत्फ उठाने लगते हैं.
महाभारत काल से राजाओं की महफिलों की शान रही राई
राई कोई सौ दो सौ साल पुराना लोकनृत्य नहीं है. इसकी शुरुआत महाभारत काल की है. राई की उत्पत्ति रास शब्द से हुई है. इसे राधा कृष्ण के रूप में गोपिकाओं का सबसे पसंदीदा नृत्य भी माना गया. प्रसिद्ध इतिहासकार हरगोविंद कुशवाहा बताते हैं कि बृज में तो राई को राधा और कृष्ण को दामोदर कहा गया है. इसी लिए वहां राई-दामोदर लोकनृत्य काफी प्रचलित है. यह पूरे बुंदेलखंड का इकलौता ऐसा नृत्य है जो हर शहर कस्बे से लेकर गांव-गांव में प्रचलित है. यहां की करीब पचास हजार बेडऩी समुदाय की महिलाओं की जीविका भी इसी लोकनृत्य के सहारे चलती है. सिर्फ नृत्य के सहारे पूरी जिंदगी काटना कितना मुश्किल है ये इन्हीं लड़कियों से ही समझा जा सकता है. चुनावों में राई की लोकप्रियता को देखते ही नेता और राजनीतिक मंचों के आयोजक लोकगीत और लोक नृत्यों के आयोजन के जरिए भीड़ जुटाने के आसान तरीके खोज लेते हैं. कलाकारों को इसके जरिए ठीक ठाक पैसा भी मिल जाता है.
दो हिस्सों में बंटा है ये नाच
कुल मिलाकर राई दो हिस्सों में बंटी नजर आती है. इसका एक हिस्सा आज भी सांस्कृतिक और पारॅपरिक रंग में सराबोर है, जिसमें ईसुरी की फागें और मोहक गीत सुनाई पड़ते हैं तो वहीं दूसरा रूप भी तेजी से उभरा है, इसमें गीत संगीत के साथ कामुकता का भी तड़का है. इन कामुक गीतों पर लोग मचल रहे हैं और कह रहे हैं… गोरी नैना न मार, गोरी नैना न मार..भर के दुनाली चाहे मार दो.
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