लखनऊ. क्या समाजवादियों ने बहुजनों की राजनीति शुरु कर दी है? हालात तो इसी बदलाव की ओर इशारा कर रहे हैं. पिछड़ों के साथ-साथ अब अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) ने दलित वोटबैंक (Dalit Votebank) पर भी डोरे डालने शुरु कर दिये हैं और वो भी बहुत आक्रामक तरीके से. पिछले कुछ महीने के घटनाक्रम तो इसी ओर इशारा कर रहे हैं. अखिलेश यादव ये लक्ष्य दो तीरों से साध रहे हैं. पहला तो ये कि वे अपनी हर रैली में दलित समाज से जुड़े मुद्दे उठाकर अपने आप को इनका रहनूमा दिखा रहे हैं और दूसरा ये कि उन्होंने बसपा (BSP) से ठुकराये गये नेताओं को तहे दिल से गले लगा लिया है.
सवाल जब 24 फीसदी वोटबैंक का हो तो चाल बदलनी जरूरी हो जाता है. अखिलेश यादव जानते हैं कि पिछड़ों के साथ यदि दलितों के वोट जुड़ जायें तो विजयश्री मिलनी तय हो जायेगी. इसीलिए उन्होंने बहुजनों को साधना शुरु किया था. वे अपनी हर चुनावी रैली में ये दिखाना चाहते हैं कि जिस अभियान को बसपा सुप्रीमो मायावती ने त्याग दिया है उसे उन्होंने अपना लिया है. वे हर रैली में निजीकरण के चलते सरकारी नौकरियों के सिकुड़ने, जातिगत जनगणना कराने जैसे मुद्दे पुरजोर तरीके से उठा रहे हैं. संविधान बचाने की जो बातें बसपा के नेता करते थे अब वे अखिलेश यादव करने लगे हैं. दलितों के साथ होने वाले अपराध पर वे आक्रामक तरीके से बीजेपी सरकार पर हमला बोलते दिख रहे हैं.
बसपा के पुराने दिग्गजों को सपा से जोड़ाबहुजनों को अपना बनाने के लिए उन्होंने इस समाज के नेताओं को भी अपना बनाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है. बसपा से निकाले गये टॉप ब्रास नेताओं का सबसे बड़ा ठिकाना सपा ही है. इन्द्रजीत सरोज तो पहले से ही हैं. हाल ही में 6 विधायकों के साथ लालजी वर्मा और रामअचल राजभर ने भी सपा का ही दामन थामा है. कभी बीजेपी से सांसद रहीं दलित लीडर सावित्री बाइ फुले से उन्होंने गठबंधन किया है. आजाद समाज पार्टी (भीम आर्मी ) के चन्द्रशेखर रावण से उनकी बातचीत चल रही है.
सपा-बसपा का गठबंधन कोई करिश्मा नहीं कर पायाअब सवाल उठता है कि दलित समुदाय अखिलेश यादव को कितना अपना पायेगा. यूपी के गांव-गांव में पिछड़ों और दलितों की कई जातियों के बीच एका नहीं रहा है. यही वजह रही कि 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा-बसपा का गठबंधन कोई करिश्मा नहीं कर पाया. सपा के वोट तो बसपा को गये, लेकिन बसपा के वोट सपा को ट्रांसफर नहीं हो पाये. कुछ दलित नेता अब इस संबंध को नये सिरे से परिभाषित कर रहे हैं.
सावित्री बाइ फुले ने कही ये बातकांशीराम बहुजन समाज पार्टी की सावित्री बाइ फुले ने कहा कि दलित समाज के मन में मायावती की वो बात घर कर गयी है, जिसमें उन्होंने कहा था कि सपा को हराने के लिए जरूरत पड़ी तो वो बीजेपी का भी साथ देंगी. इसके अलावा संविधान को खत्म करने की जो साजिश बीजेपी और संघ कर रहा है उसके खिलाफ मायावती चुप हैं. ऐसे में अखिलेश यादव ही एक विकल्प बच जाते हैं.
अखिलेश के प्रयासों से तिलमिला रही हैं मायावती!मायावती बीजेपी सरकार पर मायावती भले ही बहुत आक्रामक न दिख रही हों लेकिन, सपा पर वो ज्यादा अटैकिंग हैं. सत्तारूढ़ दल पर निशाना साधने के साथ-साथ वो सपा पर निशाना साधना नहीं भूलतीं. 8 नवंबर को मायावती ने तो ये भी कहा कि सपा ने हमेशा से ही दलित महापुरुषों और गुरुओं का तिरस्कार किया है. उन्होंने सपा के दलित प्रेम को नाटकबाजी तक कहा है. प्रयागराज में दलित समाज के 4 लोगों की हत्या पर उन्होंने कहा कि लगता है कि बीजेपी सरकार भी सपा सरकार के नक्शेकदम पर चल रही है. अखिलेश यादव के सेंधमारी के इन्हीं प्रयासों से मायावती तिलमिला रही हैं.
अखिलेश के लिए आसान नहीं राहहालांकि वरिष्ठ पत्रकार योगेश श्रीवास्तव ने कहा कि अखिलेश यादव लाख कोशिशें कर रहे हैं लेकिन दलित समाज को अपने धागे में बांध पाना आसान नहीं होगा. गांव-गांव में दोनों का गठबंधन कभी भी नेचुरल नहीं रहा है. वैसे भी मायावती को हल्के में लेना भूल ही होगी. इसीलिए अपना वोटबैंक सहेजने के लिए उन्होंने आरक्षित सीटों पर मजबूती से लड़ने का संदेश बहुजन समाज को दे रही हैं. वे लगातार बता रही हैं कि बाकी सीटों के साथ साथ अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित 84 सीटों पर फतह के लिए वे कितनी मेहनत कर रही हैं. शायद वे ये संदेश देना चाह रही हों कि दलित नेताओं को विधानसभा पहुंचाने के लिए वे कितनी जद्दोजहद कर रही हैं. वे ये भी संदेश देना चाहती हैं कि दलित नेता किसी भी पार्टी में हों लेकिन उनका सही सम्मान और स्थान बसपा में ही मिलता है.
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