हाइलाइट्सपार्टी को एकजुट बनाए रखना बसपा सुप्रीमो मायावती के लिए चुनौती हैपिछले 12 साल में बसपा के वोट प्रतिशत में भारी गिरावट आई है लखनऊ. लोकसभा चुनाव में करारी शिकस्त के बाद न सिर्फ पार्टी को एकजुट बनाए रखना बसपा सुप्रीमो मायावती के लिए चुनौती है, बल्कि पिछले 12 वर्षों में पार्टी के वोट प्रतिशत में करीब 17 प्रतिशत की भारी गिरावट भी चिंता का सबब है. ऊपर से चंद्रशेखर आज़ाद का दलित युवाओं में बढ़ता वर्चस्व और कांग्रेस की दलित पॉलिटिक्स से भी मायावती चिंतित हैं. यही वजह है कि मायावती एक बार फिर अपने राजनीतिक गुरु रहे कांशीराम के नक्शे कदम पर लौट आई हैं. उन्होंने ‘सर्वजन हिताय और सर्वजन सुखाय’ के अपने आदर्श वाक्य को बदलते हुए ‘बहुजन हिताय और बहुजन सुखाय’ को फिर से अपना लिया है, ताकि उनका कोर दलित वोट बैंक फिर से पार्टी में जुड़ सके.
2012 में उत्तर प्रदेश की सत्ता से बेदखल होने के बाद बहुजन समाज पार्टी का चुनावों में ग्राफ गिरता ही रहा है. 2014 के लोकसभा चुनाव में पार्टी एक भी सीट नहीं जीत पाई. 2017 विधानसभा चुनाव में 19 सीटों पर ही जीत मिली, लेकिन विधायक छोड़कर जाते रहे. हालांकि 2019 के लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी से गठबंधन का लाभ मिला और पार्टी के 10 सांसद जीतकर लोकसभा पहुंचे. लेकिन चुनाव के बाद सपा के साथ गठबंधन टूट गया और नतीजा यह रहा कि 2022 के विधानसभा चुनाव में पार्टी का न सिर्फ वोट परसेंटेज गिरा, बल्कि महज एक सीट पर ही जीत मिली. यह जीत भी पार्टी की नहीं बल्कि जीतने वाले प्रत्याशी उमाशंकर सिंह की मानी गई. इसके बाद पार्टी ने 2024 के चुनाव में अब तक का सबसे बुरा परफॉरमेंस देखा. एक भी प्रत्याशी को जीत नहीं मिली और वोट परसेंट भी गिरकर 9.38 फीसदी रह गया. यह 2022 के विधानसभा चुनाव में मिले 12.88 फ़ीसदी से भी कम रहा.
बसपा के वोट बैंक में भारी गिरावटअगर 2012 के विधानसभा चुनाव की बात करें तो बसपा का वोट प्रतिशत 25.91 प्रतिशत था. पिछले 12 साल में बसपा का वोट प्रतिशत घटकर 10 फीसदी से भी कम रह गया है. यह मायावती के लिए चिंता का सबब है. साथ ही उत्तर प्रदेश की राजनीति में चंद्रशेखर आजाद का दबदबा बढ़ा है, यह भी बसपा के लिए किसी चुनौती से कम नहीं है. यही वजह है कि मायावती ने जिस सोशल इंजीनियरिंग फॉर्मूले से 2007 में पूर्ण बहुमत के साथ यूपी की सत्ता पर बैठीं थीं, अब उसे छोड़कर एक बार फिर कांशीराम के नक़्शे कदम पर चल पड़ी हैं. अब बसपा ने अपने आदर्श वाक्य ‘सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय’ की जगह ‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय’ से बदल लिया है. यह नारा कांशीराम ने ही दिया था, जिसके बाद कांग्रेस से छिटककर दलित वोट बसपा के साथ आ गया था , जिसकी बदौलत मायावती चार बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनी.
2027 में बसपा को लाभ मिलने की उम्मीदइतना ही नहीं अगस्त के आखिर हफ्ते में बसपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में भी मायावती ने पार्टी पदाधिकारियों को स्पष्ट सन्देश दिया है कि दलितों से जुड़े हर मुद्दे को जोर शोर से उठाया जाएगा. प्रदेश में अगर कहीं भी दलितों के साथ उत्पीड़न होता है तो पार्टी के पदाधिकारी पीड़िता परिवार से मिलकर उनकी आवाज उठाने का काम करेंगे. इतना ही नहीं आरक्षण के मुद्दे पर भी दलितों के बीच जाकर संदेश देना है कि उनकी लड़ाई सिर्फ बसपा ही लड़ सकती है. बसपा सुप्रीमो का मानना है कि इसके सहारा उनके कर दलित वोट बैंक की वापसी हो सकती है. भले ही इसका फायदा आगामी उपचुनाव में न मिले, लेकिन 2027 के विधानसभा चुनाव में मिल सकता हैं.
कांग्रेस का ‘दलित प्रेम भी बसपा के लिए खतरे की घंटीचंद्रशेखर आजाद के साथ ही कांग्रेस की दलित पॉलिटिक्स भी मायावती के लिए चिंता का सबब है. दरअसल, जहां कांग्रेस दलितों से जुड़े मुद्दे को उठा रही है, बल्कि बसपा नेताओं को भी अपने पाले में करने की रणनीति बनाई है. यही वजह रही कि रायबरेली के अजीत पासी हत्याकांड में खुद राहुल गांधी परिवार से मिलने पहुंचे थे. जानकारों का मानना है कि लोकसभा चुनाव में करारी शिकस्त के बाद बसपा नेताओं का मनोबल गिरा है. उन्हें कांग्रेस में अपना भविष्य नजर आ रहा है. यही वजह है कि बस्ती और चित्रकूट में बसपा नेताओं ने कांग्रेस का दामन थाम लिया.
कांग्रेस का आरोप दलितों की दिखावटी हितैषी बन रही बसपाकांग्रेस प्रवक्ता अंशु अवस्थी ने न्यूज़18 से बातचीत में बताया कि कांग्रेस अकेली ऐसी राजनैतिक पार्टी है जिसने समाज के सबसे कमजोर, शोषित और वंचित दलित समाज के हित में सदैव काम किया. जब बसपा का उदय नहीं हुआ था तब कांग्रेस की राजीव गांधी सरकार ने दलितों के अधिकारों की सुरक्षा और उनके उत्पीड़न रोकने के लिए अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनयम 1989 में लेकर आए, उनको इंदिरा आवास, जमीनों के पट्टे दिए. हाल में उत्तर प्रदेश की भाजपा योगी आदित्यनाथ सरकार में जब दलितों के ऊपर हाथरस, लखीमपुर, उम्भा, आजमगढ़, सहित पूरे प्रदेश में अत्याचार हो रहा था तब राहुल गांधी, प्रियंका गांधी और कांग्रेस नेताओं ने उनके अधिकार की लड़ाई लड़ी संघर्ष किया, लेकिन बसपा और उनके नेता दलितों पर हो रहे अत्याचार के खिलाफ़ कहीं दिखाई नही दिए. इसके साथ ही समाज के सभी वर्गों के कांग्रेस की भावना लोक कल्याणकारी रही है. भाजपा केंद्र सरकार द्वारा बाबा साहब भीमराव आंबेडकर के बनाए संविधान को समाप्त करने की साजिश के खिलाफ़ कांग्रेस ही लड़ी. बसपा कहीं नहीं दिखी, दलित समाज समझ गया है कि उनके हितों की रक्षा कांग्रेस ही करेगी, इसीलिए 2024 के लोकसभा चुनाव में जमकर वोट किया. इसी से घबड़ाई बसपा अब दिखावटी हितैषी बन रही है, लेकिन सच्चाई सभी जानते हैं कि वह संविधान समाप्त करने की नियत रखने वाली भाजपा के साथ है.
Tags: BSP chief Mayawati, UP latest newsFIRST PUBLISHED : September 7, 2024, 10:41 IST