आदिकाल में जीने को मजबूर हैं पाठा के आदिवासी, आज भी कई बार घरों में नहीं जलते चूल्हे

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विकाश कुमार/चित्रकूट: चित्रकूट का पाठा क्षेत्र हमेशा से उपेक्षा का शिकार रहा. पहले इसे जंगली डकैतों ने अपने कब्जे में रखा और अपनी सुविधा के हिसाब से इस्तेमाल किया. उनके सफाये के बाद भी इसके विकास की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया गया. यह आज भी पिछड़ा ही है. यहां काफी संख्या में आदिवासी समाज के लोग रहते हैं. ऐसे में क्षेत्र में कोई विकास ना होने से यहां रहने वाले आदिवासी भी स्कूल से लेकर चिकित्सा तक के अभाव में जीवन जी रहे हैं. यहां के आदिवासियों की जीवन शैली की बात करें तो सुबह होते ही उनकी पहली चिंता अपने रोजी रोटी की होती है.आपको बता दें कि सुबह होते ही आदिवासी पुरुष और महिलाएं अपने बच्चे और घर छोड़कर काम की तलाश में निकल जाते हैं. दिनभर काम करके शाम ढलने पर घर वापस आते है. इससे उनके बच्चों की पढ़ाई भी बाधित होती है और बच्चे भी पीढ़ी दर पीढ़ी माता-पिता की तरह अनपढ़ और अशिक्षित रह जाते हैं. इससे उस पूरे समुदाय का कोई विकास नहीं हो पाता.सुबह से रोजगार की तलाश में निकल पड़ते है लोगमानिकपुर पाठा क्षेत्र की रहने वाली आदिवासी समाज की महिला बूटी देवी ने बताया कि यह क्षेत्र आदिवासियों से भरा है. यहां की महिलाएं, बच्चे और बुजुर्ग सुबह से ही नहा धोकर रोजगार की तलाश में घरों से निकल जाते हैं. दिन भर काम करने के बाद शाम को घर आ जाते हैं और बच्चों के लिए खाना पका कर उनका भरण पोषण करते हैं.काम न मिलने पर नहीं जलता चूल्हाइस समुदाय के लोगों की सबसे ज्यादा चिंता यह है कि अगले दिन उनको कोई काम मिलेगा या नहीं. अगर अगले दिन उनको कोई काम नहीं मिलता है तो उनके घरों में चूल्हा तक नहीं जलता. मजबूरी में लोगों को खाली पेट सोना पड़ता है.उन्होंने आगे बताया कि उनके आसपास क्षेत्र में रोजगार के संसाधन नहीं हैं. यहां रोजगार न मिलने पर बहुत से लोग दूसरे राज्यों में पलायन कर जाते हैं और बीवी बच्चों के साथ अन्य वहीं रहने लगते हैं. इस तरह के घुमंतू जीवन से उनके बच्चों का भविष्य भी नहीं बन पाता.FIRST PUBLISHED : July 15, 2024, 20:40 IST

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