होली के बाद पड़यवाला मंगलवार बनारस बदे खास होलाषा गंगा के बीच धारा में बजड़ा सजयलन, अउर एही बजड़न पर सजयला ’बुढ़वा मंगल’ महफिलषा इ महफिल इतिहास के तीन सौ साल पीछे से सजल आवत हौषा बनारस क इतिहासकार डॉ. मोतीचंद अपने किताब ’काशी का इतिहास’ में लिखले हउअन कि बुढ़वा मंगल क आयोजन काशी नरेश क सिपहसालार मीर रुस्तम अली 1735 में करइले रहलनषा लेकिन बनारस गजेटियर में लिखल हौ कि बुढ़वा मंगल क शुरुआत नावाब आसफुद्दौला क लड़िका वजीर अली करइले रहलषा शुरुआत चाहे जब अउर जे करइले होय, लेकिन बनारस क इ परंपरा समय के तमाम उतार-चढ़ाव के बावजूद आज भी जारी हौषा रूप भले बदलि गयल होय, लेकिन रंग उहय बनारसी हौषा.
मोतीचंद पुराने जमाने के बुढ़वा मंगल के बारे में लिखले हउअन कि आयोजन बहुत भव्य तरीके से होय, अउर ओहमें नगर क गणिका, गवनहर, साजिंदा सब अपने-अपने कला क प्रदर्शन करयंषा रामनगर से लेइके राजघाट तक गंगा में बजड़न क लड़ी लगि जायषा फूलन से सजल बजड़ा गंगा के धारा पर अइसन लगय, जइसे गंगा में फूले कियारी बनि गयल होयषा एही बजड़न पर गीत-सगीत-नृत्य क महफिल सजयषा कवनों बजड़ा पर होली, कवनो पर चैती त कवनो पर ठुमरी क सुर गूंजयषा बनारस क राजा, रईश, जमींदार, सेठ-साहूकार, साहित्यकार, रसिक लोग होली क रंग धोइ के अद्धी क माड़ी वाला कड़क झक सफेद चूनटदार कुर्ता अउर पायजामा पहिनले, कपारे पर दुपलिया टोली अउर कान्हे पर गुलाबी गमछा डलले गद्दा पर मसनद क टेक लेइके बइठि जायंषा भांग-बूटी, ठंढ़ई क सुरूर अउर इत्र के सुगंध के साथे सुर-संगीत क महफिल रात भर जवान बनल रहयषा खान-पान क बंदोबस्त भी बीच धारा मेंषा शहर क हलुवाई नावन पर दुकान सजाइ लेयं, अउर तरह-तरह क व्यंजन पुड़ी-तरकारी, मिठाई, भांग-ठंढई, रबड़ी-मलाइ, मघई पान महफिलबाजन क स्वागत करयषा इ कुल परंपरा कम-बेसी आज भी कायम हौषा.
पुरनिया लोग बतावयलन कि अपने जमाने में सरस्वती बाई, विद्याधरी, हुस्ना बाई, बड़ी मोती, छोटी मोती, राजेश्वरी बाई, तौखी, मैना बाई जइसन गलेबाज गवनहर अउर नर्तकी बुढ़वा मंगल क शान रहलिनषा बनारस क राजा, रईश, जमींदार, साहित्यकार आयोजन क कद्रदान रहयंषा काशी नरेश से लेइके भारतेंदु हरिश्चंद्र अउर जयशंकर प्रसाद तक अपने समय में बुढ़वा मंगल क शान बढ़ावयंषा हुस्ना बाई के बारे में बतावल जाला कि दशाश्वमेध घाट के सामने गंगा के पानी में बजड़ा पर जब उ गोड़े में घुघुरू बांधि के नाचय-गावय शुरू करय (फूल गेंदवा के ना मोहे मारा हो राजा) त ओनकर सुरीली अवाज गंगा ओह पार रामनगर के किला तक गूंजयषा राजेश्वरी क गाना सुनय बदे अउर मैना क नाच देखय बदे बनारस वाले बेचैन होइ जायंषा पुरनियां बतावयलन कि 1936 में अनवरी बाई एक गाना गइले रहलिन -मार डाला…मार डाला…मार डाला…षा इ गाना वाकई न जाने केतना जने क जान मारि डललस, दीवाना बनाइ देहलसषा गाना एतना प्रसिद्ध भयल कि हर आदमी के जबान पर -मार डाला…मार डाला…षा.
मोतीचंद लिखले हउअन कि जब रुस्तम अली बनारस से गइलन त गवनहर ओनकरे याद में बहुत दुखी भइलिन, गाना बनाइ के गइलिन –कहा गयो मेरो होली के खेलैया,सिपाही रुस्तम अली बांके सिपहियाषाबुढ़वा मंगल के काशी नरेश क संरक्षण मिलल त इ उत्सव लाखा मेला में बदलि गयलषा शुरू में बुढ़वा मंगल क मेला तीन-चार दिना तक चलयषा लेकिन अब इ एक दिना क मेला रहि गयल हौषा संझा के शुरू होला अउर आधी रात तक चलयलाषा चैत के गुलाबी मौसम में नीला आसमान के नीचे गंगा के धारा पर इ आयोजन जीवन क अइसन क्षण परोसयला, जवने क अहसास आयोजन में शामिल भइले के बादय होलाषा बुढ़वा मंगल क शुरुआत राजघाट पर भयल, फिर इ दशाश्वमेध घाट पहुंचल, अउर अब इ आयोजन अस्सी घाट पर होलाषा बुढ़वा मंगल के महफिल में शास्त्रीय संगीत के अलावा सुगम संगीत अउर ठेठ बनारसी भी चलयलाषा बनारस में होली एक दिन क तेवहार नाहीं होतषा शिवरात्रि से शुरू होला अउर बुढ़वा मंगल तक चलयलाषा पहिले इ आयोजन काशी के लोगन क रहलषा अब एहमें प्रशासन क भी भागीदारी होइ गइल हौषा.
सबके मन में एक सवाल इ उठयला कि आयोजन क नाव बुढ़वा मंगल कइसे पड़ल? नावे के पीछे कवनो मुकम्मल इतिहास नाहीं हौषा लेकिन बुढ़वा मंगल आयोजन समिति क लोग बतावयलन कि फागुन के बिदाई के साथे नया साल शुरू होलाषा नए साल के मंगल बदे काशी क लोग पहिला मंगलवार के बुजुर्गन से आशीर्वाद लेलनषा बनारसी मस्त मलंग अपने मस्ती में जलोत्सव क नाव बुढ़वा मंगल रखि देहलनषा नव वर्ष के आगमन क वृद्ध अंगारक पर्वषा बाबा विश्वनाथ काशी क आदि बुजुर्ग हयनषा संगीत-नृत्य क जनक भी ओनही हयन, एह से कलाकार लोग गीत-नृत्य-संगीत के जरिए बाबा के संगीताजलि अर्पित करयलन, ओनसे नए साल बदे आशीर्वाद लेलनषा इ आयोजन आपसी भाईचारा क मिसाल हौषा हर जाति-धर्म क रेखा आयोजन में मिटि जालाषा बनारस क गंगा-जमुनी तहजीब क साक्षात दर्शन होलाषा.
(सरोज कुमार स्वतंत्र पत्रकार हैं, आलेख में लिखे विचार उनके निजी हैं.)
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